कैसा था वो महान सारागढ़ी का युद्ध जिसपर अक्षय कुमार ले कर आ रहे हैं फिल्म ‘केसरी’

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Rishabh Verma
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कैसा था वो महान सारागढ़ी का युद्ध जिसपर अक्षय कुमार ले कर आ रहे हैं फिल्म ‘केसरी’

हमारे देश के वीरपुत्र मातृ भूमि की रक्षा के कार्य से कभी भी पीछे नहीं हटते हैं। आप चाहें तो भारतीय इतिहास से कोई भी कालखंड उठा लें आपको इस प्रकार की कई गाथाएं मिल जायेगी। ऐसी ही एक गाथा हम आपको आज आपको बताने जा रहे है जो की बलिदान से भरी गाथा है जिसके लिए भारत के वीरपुत्रों ने अपना सब कुछ मातृ भूमि को समर्पित कर दिया था। केवल 21 शूरवीर सिखों ने मातृ भूमि की सुरक्षा करने के लिए अफगानिस्तान के इस्लामी आक्रांताओं को धूल चटा दी थी।

इतिहास में इस वीरगाथा को सारागढ़ी का युद्ध के नाम से जाना जाता है। हालांकि इस गाथा को हमारे देश के लोगों ने भुला दिया था पर अब इस युद्ध को याद रखने के लिए अक्षय कुमार अभिनीत फ़िल्म ‘केसरी’ आ रही है जो की इन वीरपुत्रों के साहस को दर्शाएगी। चलिए जानते है की क्या है इस केसरी की असली गाथा? और यह किस तरह का युद्ध था जिसमें दुश्मनों को मुँह की खानी पड़ी थी।

यह गाथा 12 सितंबर 1897 के दिन की है। उस समय भारत पर ब्रिटिश साम्राज्य का राज था। लेकिन इस दिन देश के 21 सिखों ने कुछ ऐसा किया की अंग्रेजी हुकूमत को भी ‘Standing Ovation“ देना पड़ा साथ ही वह भी इन भारतीय जवानों की शौर्य गाथा को गाने पर मजबूर हो गए।

इस गाथा को जानने के लिए यह बता दें की आज भी अविभाजित भारत का उत्तर-पश्चिमी प्रांत एक अशांत क्षेत्र है। वह इसलिए क्योंकि इस क्षेत्र में आज भी पाकिस्तानी आतंकवादी और अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद तालिबान से सम्बंधित आतंकी संगठन के कारण आए दिन खून ख़राबे से घिरा रहता है। आज यह क्षेत्र पाकिस्तान के 4 प्रांतों में से ख़ैबर पख़्तूनख़्वा कहलाता है लेकिन पहले यह अविभाजित भारत का हिस्सा होता था।

वर्ष 1897 में अंग्रेजों द्वारा सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए उत्तर-पश्चिमी सीमा पर एक छोटी सी चौकी बनायीं गयी थी। इस चौकी के द्वारा उस समय दो किलों के बीच संचार होता था। ये दोनों किले गुलिस्तान और लॉकहार्ट के नाम से जाने जाते थे। सारागढ़ी दोनों किलो के बीच में था। बता दे की इन किलों को सिख इतिहास में जाने जाने वाले सबसे सफल और पराक्रमी योद्धाओं में से एक रणजीत सिंह ने बनवाया था। सितंबर 1897 में इन दोनों किलों पर अफगानी हमले हुए। जिसके चलते कर्नल जॉन हॉटन ने 36वें सिख रेजिमेंट को यहाँ तैनात रहने का आदेश दिया था।

सारागढ़ी की चौकी का रास्ता बहुत ही दुर्गम था। उस स्थान पर पथरीली पहाड़िया थी जिसके कारण वहां सुरक्षा व्यवस्था भी कम की गयी थी। दोनों किलो में संदेश के आदान प्रदान के लिए टावर का इस्तेमाल किया जाता था और रात को रोशनी का सहारा भी लिया जाता था।

कबाइलियों ने साल 1897 के 12 सितम्बर के दिन सारागढ़ी और लॉकहार्ट में डेरा डाला ताकि उनके बीच संपर्क को नष्ट किया जा सके साथ ही सेना की आवाजाही को भी रोका जा सके।  इसके बाद युद्ध के नियम की अवहेलना करते हुए कबाइलियों ने सही समय देखकर हमला कर दिया। उनसे इन किलों को बचाना बहुत ही आवश्यक था क्योंकि वे यदि इन किलों में घुस जाते तो वह पूरे इलाक़े को बुरी तरह से नष्ट कर सकते थे साथ ही इन किलो को जला भी सकते थे। कबाइलियों ने 10,000 के आसपास सैनिकों के साथ सारागढ़ी में युद्ध का आरम्भ कर दिया।

इस हमले की जानकारी दूसरी चौकियों की दी गयी पर तत्काल मदद मुहैया कराने में दूसरी चौकियां असमर्थ थी। इसके बावजूद सारागढ़ी किले के कमांडर हवलदार ईशर सिंह ने अपने प्राणो की परवाह न करते हुए अपनी आखिरी साँस तक लड़ने का फैसला किया। सिख इसी मिशाल के लिए जाने जाते है।

सारागढ़ी की चौकी पर दो बार हमले हुए लेकिन दोनों ही बार दुश्मनों को मुँह की खानी पड़ी। फिर लॉकहार्ट किले से सैन्य मदद को भेजा गया लेकिन कबाइलियों की संख्या ज्यादा होने के कारण उन्होंने सेना को सारागढ़ी की चौकी तक पहुंचने नहीं दिया। कबाइलियों ने ईशर सिंह को आत्मसमर्पण  कर वहां से भाग जाने के लिए भी कहा। बता दे की सिख पीछे हटने वालों में से नहीं थे। सिख की इस टुकड़ी को ब्रिटिश-भारतीय रेजिमेंट में “36 सिख” के नाम से जानते थे।

दुश्मनों से लड़ने के लिए ईशर सिंह ने पहाड़ी से नीचे उतरने का फैसला किया। यह उनकी रणनीति थी उन्हें पता था की वह कबाइलियों की हज़ारों सेना से युद्ध नहीं जीत सकते। उनकी रणनीति थी दुश्मनों को रोके रखना।  ताकि तब तक उनको सैन्य मदद मिल सकती है।

जैसे ही सिख नीचे उतरे कुछ देर के लिए दुश्मन डर गए। उन्हें यह आश्चर्य लग रहा था की केवल  21 लोग उनकी हजारों की सेना से लड़ेंगे। इस युद्ध में सबसे पहले वीरगति भगवान सिंह को मिली। उनके पार्थिव शरीर को नाइक लाल सिंह और से पॉय जीवा सिंह ने दुश्मनों से बचाकर  पोस्ट के भीतर रख दिया। कबाइलियों के हमले विफल हुए लेकिन बाद में उन्होंने दीवार पार कर ली। इधर सिखों के हथियार ख़त्म हो रहे थे लेकिन उनकी साहस को  कोई तोड़ नहीं सकता था।

हवलदार ईशर सिंह ने वीरता दिखाते हुए अपने सैनिकों को अंदर जाने को कहा और खुद दुश्मनों से लड़ने लगे। लेकिन बाकी सीखो ने हार नहीं मानी और वीरतापूर्वक लड़ते रहे। एक एक करके सभी सिख वीरगति को प्राप्त हुए। इसके अलावा बटालियन के मुख्य कार्यालय को इस युद्ध की जानकारी सिपाही गुरुमुख सिंह चौकी से ही देते रहे ताकि सेना समय पर वहां पहुंच सके और किले की रक्षा हो सके। आपको बता दे की जब इस युद्ध मे सिखों के हथियार ख़त्म होने लगे थे तो उन्होंने वाहे गुरु जी का नाम लेकर मल्ल्युद्ध शुरू कर दिया। इन सिखो ने अंत तक वीरता का परिचय दिया। दुश्मनों को भी अपनी हार दिखने लगी थी।इस युद्ध को इतिहास में आज भी याद किया जाता है। उनकी इस याद में 12 सितंबर को ‘सारागढ़ी दिवस’ भी मनाया जाता है।

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