बुधवार, 23 जनवरी को, जम्मू और कश्मीर से कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के 29 वें वर्ष की पूर्व संध्या पर, यूनाइटेड किंगडम (यूके) की संसद ने उन सभी पीड़ित परिवारों और दोस्तों के प्रति संवेदना व्यक्त की। इस दौरान अपनी संवेदना व्यक्त करते अर्ली डे मोशन (ईडीएम) को पारित किया गया साथ ही सामूहिक हत्या के संबंध में गहरा दुख व्यक्त करते हुए, ब्रिटेन की संसद ने सीमा पार से होने वाले हमले के लिए इस्लामी आतंकवाद की निंदा भी की।
इतना ही नहीं, ब्रिटेन की संसद ने हिंदू समुदाय द्वारा दिखाए गए साहस की प्रशंसा की और उनकी सहिष्णुता की सराहना की, क्योंकि हिन्दू समुदाय हिंसा के बजाय करुणा के साथ अपना पक्ष रखता था।
हाउस ऑफ कॉमन्स का इस तरह का बयान उन सभी संगठनों और गलत इरादों वाले लोगों के लिए एक थप्पड़ की तरह है, जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था जब वह पिछले साल अप्रैल में ब्रिटेन की यात्रा पर थे। बता दे की 2018 में, पीएम मोदी राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्षों की बैठक (CHOGM) 2018 में भाग लेने के लिए लंदन के दौरे पर थे और कुछ नापाक संगठन ने उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था।
बहरहाल आपको बता दे की जनवरी 1990 की उस बर्फीली रात को श्रीनगर कभी भुला नहीं सकता है । उस ठंडी रात में घाटी में कुछ ऐसा हुआ की जिससे कश्मीर की धरती पर कलंक लग गया । उस रात घाटी में कई सदियों से रह रहे कश्मीरी पंडितों को “काफ़िरों” का लेबल लगाकर कश्मीर घाटी से बाहर निकाल दिया गया और उन्हें अपने ही देश में शरणार्थी बना दिया गया। रातों रात, कश्मीर राजनीतिक इस्लाम की लड़ाई में एक और अग्रिम पंक्ति का राज्य बन गया।कुछ ही दिनों में करीब एक लाख से ज्यादा कश्मीरी चले गए।
इन सब की शुरुआत वर्ष 1987 के चुनावों में हुई जब धांधली के बीच मुख्यमंत्री बने फारूक अब्दुल्ला ने इस्तीफ़ा दे दिया और कश्मीरी पंडितों को उनके भाग्य पर छोड़ दिया। जगमोहन, जिन्हें राज्यपाल नियुक्त किया गया था, वे खराब मौसम का हवाला देते हुए श्रीनगर भी नहीं आ सके। अर्धसैनिक बलों ने ऊपर से आदेश का इंतजार किया।
यूके पार्लियामेंट द्वारा पारित अर्ली डे मोशन में दावा किया कि यह एक केवल राज्य का नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का कर्तव्य है कि कश्मीरी हिंदू समुदाय पर मानवता के खिलाफ इस तरह के नरसंहार और अपराधों को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए और उनका पुनर्वास करवाया जाना चाहिए।